मैं तो अपने छात्रों को हिदायत देता हूं कि  अगर वर्तनी दुरुस्त रखनी है तो कुछ भी नया पढ़ना बंद कर दो. हंस जैसी  पत्रिकाओं में अशुद्धि की भरमार रहती है, साथ ही अभिनव ओझा की भूल-सुधार  भी. दोनों काम साथ-साथ. यह केवल हंस का मामला नहीं है. वर्तनी की शुद्धता  बहुत बड़ी चुनौती है हमारे सामने. बल्कि अब तो बोलने की हिम्मत भी नहीं  होती. लोग 'शुद्धतावादी/शुचितावादी/ब्राह्मणवादी' आदि विभूषण दे डालते हैं. 
