लगभग  तीन साल पहले कुमार मुकुल के पिता पटने के इंदिरा गाँधी आयुर्विज्ञान  संस्थान के आई .सी.यू. में भर्ती थे. उस शाम मुकुल जी के साथ मैं भी वहां  था. मेरी उपस्थिति में एक मरीज का निधन हो गया. पिता के  निधन से शोकाकुल पुत्र बुरी तरह से रोए जा रहा था। बाकी मरीजों के परिजनों  ने उसे डांट-डपटकर रोने के अधिकार से वंचित कर दिया।रोते हुए वह कहे जा  रहा था कि पिता के बगैर वह अब नहीं रह सकेगा कि तभी नर्सें आयीं और अस्पताल  का बिल भरकर लाश को अतिशीघ्र हटा लेने को कही।कोई चारा न देख शोकाकुल मन  अप्रयुक्त दवाईओं को उठा लौटाने चल दिया.मैं सोचने लगा कि यह क्या है कि जो  आदमी थोड़ी ही देर पहले संसार को निस्सार समझ रहा था फिर से सांसारिक कैसे  और क्योंकर होने लगा. मुझे लगा,एक खास सीमा के बाद संवेदना दम तोड़ देती है.                                    अब एक दूसरी घटना-   कुछ साल पहले मैं  कही शहर से बाहर जाने के लिए पटना प्लेटफॉर्म पर मित्र का इंतजार कर रहा था  कि एक भिखारी आ पहुंचा.अपनी आदत के विरुद्ध मैंने उसे एक रुपये का एक  सिक्का दिया. उसके बाद दूसरा आया. किन्तु अब मैं पैसे न देने की मनः स्थिति  में आ चुका था . लगभग आध घंटे के भीतर बीस भिकारी आए . मैंने सोचा कि अगर  सब भिखारियों के साथ सहानुभूति /संवेदना प्रकट करता तो मैं तो उनकी स्थिति  में आ जाता. मैं संभावित वर्गांतरण से बच /बचा गया.   
