सच तो यह है कि भाषाओँ में आपस में विरोध नहीं होता । हमारा यह मानना कि हिंदी के विकास से बोलियां कमजोर अथवा नष्टप्राय हो रही हैं ,वैज्ञानिक या तर्कसम्मत नहीं है.किसी भी भाषा का 'स्वतंत्र विकास' किसी भी दूसरी भाषा के नैसर्गिक विकास में बाधक नहीं है .यहाँ तक कि अंग्रेजी तथा अन्य विदेशी भाषाओँ से हिंदी समृद्ध हुई है . मुझे लगता है , हम भाषा पर बात करते विचार को अलग छोड़ देते हैं . अंग्रेजी ने विचार के स्तर पर हिंदी एवं अन्य भाषाओँ को जो योगदान दिया है उसे भुलाया नहीं जा सकता . सारी गडबड़ी भाषा के 'प्रायोजित विकास ' की है .
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