Thursday, December 23, 2010

भाषा हमें एक पहचान देती है . शासक वर्ग हमेशा आम जन की भाषा से भिन्न भाषा का प्रयोग करता है .यह उसे विशिष्टता और सुरक्षा प्रदान करती है .उनके बुद्धिजीवी भी उसी भाषा में बात करते हैं . बुद्धिजीवी अगर आम जन की भाषा बोलने लगें तो उनकी विशिष्टता बहुत हद तक स्वतः समाप्त मानी जायेगी . इसकी जड़ें औपनिवेशिक दासता से उत्पन्न मानसिकता में भी है . कई राजनीतिक पार्टियां भी , जो आम जन की मुक्ति की बात करती हैं ,भाषा के मामले में अंग्रेजी से चिपकी हैं . कारण शायद यह हो कि उनका नेतृत्व भी उच्च मध्य वर्ग के हाथों में है . आंदोलनों और पार्टियों के नेता जब किसानों -मजदूरों के बीच से आएंगे तभी शायद यह सवाल हाल हो . अकादमिक जगत में भी हमें वैसे बुद्धिजीविओं की फ़ौज के आगमन का इंतजार है जो कह सकें कि मेरे दादा हलवाहे थे . देश के स्तर पर एक तरह के स्कूल और सिलेबस की गारंटी भी इस समस्या को हल करने की दिशा में एक महत्वपूर्ण पहल हो सकती है .
आप बहुत सही सवाल उठा रहे हैं . एक वर्ग -विभाजित समाज में भाषाओँ की भी सामाजिक हैसियत होती है . अंग्रेजी सांस्कृतिक श्रेष्ठों की भाषा है और हिंदी कमतरों की .