Thursday, December 23, 2010

भाषा हमें एक पहचान देती है . शासक वर्ग हमेशा आम जन की भाषा से भिन्न भाषा का प्रयोग करता है .यह उसे विशिष्टता और सुरक्षा प्रदान करती है .उनके बुद्धिजीवी भी उसी भाषा में बात करते हैं . बुद्धिजीवी अगर आम जन की भाषा बोलने लगें तो उनकी विशिष्टता बहुत हद तक स्वतः समाप्त मानी जायेगी . इसकी जड़ें औपनिवेशिक दासता से उत्पन्न मानसिकता में भी है . कई राजनीतिक पार्टियां भी , जो आम जन की मुक्ति की बात करती हैं ,भाषा के मामले में अंग्रेजी से चिपकी हैं . कारण शायद यह हो कि उनका नेतृत्व भी उच्च मध्य वर्ग के हाथों में है . आंदोलनों और पार्टियों के नेता जब किसानों -मजदूरों के बीच से आएंगे तभी शायद यह सवाल हाल हो . अकादमिक जगत में भी हमें वैसे बुद्धिजीविओं की फ़ौज के आगमन का इंतजार है जो कह सकें कि मेरे दादा हलवाहे थे . देश के स्तर पर एक तरह के स्कूल और सिलेबस की गारंटी भी इस समस्या को हल करने की दिशा में एक महत्वपूर्ण पहल हो सकती है .
आप बहुत सही सवाल उठा रहे हैं . एक वर्ग -विभाजित समाज में भाषाओँ की भी सामाजिक हैसियत होती है . अंग्रेजी सांस्कृतिक श्रेष्ठों की भाषा है और हिंदी कमतरों की .

Monday, November 22, 2010

आप सही कह रहे हैं .लेखन सायास ही होता है लेकिन उसमे बहुत कुछ अनायास भी शामिल होता चलता है . निराला अपने समय की उपज थे इसलिए समय की अच्छाइयां और गडबडियां भी साथ थीं . और ये उस युग की विशेषता है अकेले निराला की नहीं . इतिहास में समय की मांग शामिल रहती है ,इसलिए बदले हुए समय में बहुत सी बातें अनावश्यक हो जाती हैं . निराला इसके अपवाद नहीं हो सकते . आज हम सभी एक बदले हुए समय मैं हैं इसलिए हमारी जरूरतें भी भिन्न हैं . हमें इतिहास की पुनर्रचना करनी होगी ,ऐसा हो भी रहा है .यह भी सही है कि इतिहास में कभी एक धारा नहीं रही है . मोटे तौर पर दो ताकतें हैं -प्रगतिशील और प्रगति विरोधी . इस पहली ताकत के लोगों को संगठित होकर काम करना होगा. लेकिन यहाँ भी कुछ सैद्धांतिक मतभेद हैं जो रहेंगे क्योंकि उनके भिन्न वर्गीय हित हैं . यह स्वाभाविक है .

Sunday, November 21, 2010

निराला की कविताओं में इन बातों के होने से कोई इंकार नहीं कर सकता लेकिन समग्रता में वे हिंदी कविता को आगे ले जानेवाले कवि हैं. भारत में राष्ट्रीयता का विकास ही हिंदू एवं मुस्लिम राष्ट्रीयता (आप उसे पुनरुत्थानवाद कहें ) के रूप में हुआ. कविता... ही नहीं, इतिहास लेखन के क्षेत्र में भी ऐसी ही प्रवृत्ति देखी जा रही थी. प्रख्यात इतिहासकार के. पी. जायसवाल भी 'हिंदू पोलिटी ' में साफ -साफ दिखा रहे थे कि भारत प्रजातंत्र का आदि- स्थल रहा है .इस तरह का 'अविवेक' शायद साम्राज्यवाद की इस प्रस्थापना की प्रतिक्रिया में पैदा हो रहा था कि 'भारतीयों का अपना कोई इतिहास नहीं है'. इस विशेष ऐतिहासिक परिस्थिति में भारतीय राष्ट्रवाद का यह स्वरुप भी कुल मिलकर प्रगतिशील ही माना जायेगा,बल्कि माना ही जाता है .इसे साम्राज्यवाद का दबाव मानना चाहिए. ध्यान रखने की बात है कि अपनी राष्ट्रीयता अंग्रेजी साम्राज्यवाद की प्रतिक्रिया में पैदा हुआ, स्वाभाविक विकास नहीं था यह. और यह प्रतिक्रिया नेहरु तक में मिलती है. उनके लिए भी भारतीय इतिहास में गुप्त काल का उत्थान 'राष्ट्रीयता ' का उत्थान है.

छायावादी कवियों में समाजवाद का का सीधे -सीधे नाम लेकर सबसे ज्यादा कविताएं संभवतः पंत द्वारा लिखी गईं लेकिन हिंदी पाठकों के विवेक ने उन्हें वह गौरव नहीं दिया जो निराला को है. अगर यह सब इतिहास की भूल है तो आप उसका निश्यय ही सुधार करें. इतिहास के इस फैसले का आप क्या करेंगे कि कोई मिथकों पर लिखकर बड़ा कवि हो जा रहा और कोई समाजवाद पर लिखकर भी कमतर ही रह गया ?See more

Saturday, November 20, 2010

राम की शक्तिपूजा के बहाने

भाई 'राम की शक्तिपूजा' का नवल जी का अध्ययन संस्कृत ज्ञान के अभाव में कितना प्रामाणिक है , मैं नहीं कह सकता .
राम -कथा पर कविता लिखकर तुलसीदास आज भी हिंदी के सबसे बड़े कवि हैं .उन्होंने परंपरा से जितना लिया है निराला बेचारे क्या ले पाएंगे. परंपरा का ज्ञान अथवा पूर्ववर्ती ज्ञान का उपयोग चोरी है , मुझे समझ में नहीं आता. मिथकों की व्याख्या करके कोई प्रगतिशील कहलाये और कोई प्रगति विरोधी -यह उचित नहीं .राम की शक्तिपूजा और सरोज -स्मृति में चुनाव का भी सवाल नहीं है .इनमें से एक को छोड़कर दूसरे को समझा भी नहीं जा सकता शायद . शायद इसलिए कि राम की शक्तिपूजा पर बोलने का मैं उचित ही अपने को लायक नहीं मानता .चूँकि एक पाठक के बतौर मैं इस कविता को पढ़ता रहा हूँ इसलिए निवेदन कर सकता हूँ कि यह राम -रावण युद्ध का वर्णन न होकर निराला के खुद कि समरगाथ है .सरोज स्मृति को भी मैं इसी सन्दर्भ में पढ़ता हूँ .इन दोनों के कथा -सूत्र मुझे एकमेव लगते हैं . राम की शक्तिपूजा में मुझे इतना आवेग मिलता है कि इसकी कृत्रिमता के बारे में सोंच भी नहीं पाता .

हाँ मुसाफिर भाई , मुझे जहां गलती लगती है वहां मैं खुले मन से स्वीकार करता हूँ -जैसा आपने मेरी ही पंक्तियों को उद्धृत कर दिखाया भी है लेकिन राम की शक्तिपूजा को एक बड़ी कविता कहने से अब भी इंकार नहीं कर सकता . प्रगतिशीलता मेरे लिए मात्र फैशन न...हीं है एक स्थायी जीवन मूल्य है . लेकिन जबतक मुझे खुद को किसी बात का इत्मीनान नहीं हो जाता , स्वीकार करने की गलती नहीं कर पाता .मैं फिर अपनी सीमा का उल्लेख करते करते कहूँ कि राम की शक्तिपूजा पर निष्कर्ष रूप में कहने लायक नहीं हुआ हूँ . आस्वाद के स्तर पर यह कविता मुझे अब भी बड़ी लगती है .

भाषा में सवर्ण और दलित मानसिकता का मैं विरोधी हूँ और इसे गाली के रूप में स्वीकार करता हूँ .वर्गीय राजनीति का हिमायती रहा हूँ जिसका मुझे गर्व है .हाँ मैं इसे फिर से संस्कृत की तैयारी के साथ पढ़ने की योजना में हूँ और सदिच्छा है कि आपके विचारों के निकट पहुँच सकूँ .

तुलसीदास की छवि सिर्फ रामचरितमानस को आधार बनाकर नहीं गढ़ी जा सकती .कवितावली में तो वे कई आधुनिक प्रगतिशीलों के भी नाक -कान काटते है.ख़म ठोकनेवाले त्रिलोचन को भी तुलसीदास के यहाँ बहुत कुछ सीखने को मिला है .अशोक भाई , मेडिकल सायंस के कुछ अंधविश्वासों का रहस्य खोलें तो समझा जा सके .

Friday, November 19, 2010

यह परंपरा आधुनिक बिहार में भी देखी गई है भाई . खासकर मैथिल परिवारों में जो समृद्ध होते थे या जमींदार कहिए ,कई गावों में कई लड़कियों से शादी करते थे . गरीब माँ -बाप ऐसा धनोपार्जन हेतु करते थे . कई पत्नियाँ तो ऐसी होती थीं जो न तो कभी ससुराल गई न पति को ही देख पाई .
साहित्य में इस तरह के विभाजन से एकदम इंकार नहीं किया जा सकता . दलित साहित्य का तो आधार वाक्य है कि अबतक का साहित्य सवर्ण साहित्य है .भारतीय समाज में जाति एक प्रभावी पहचान है .कुछ स्तर पर प्रगतिशील लेखक भी इस आधार पर अघोषित रूप में संगठित है....मेरे शहर पटना में कुछ प्रगतिशील साहित्यकार अपने कमरे के एकांत में जब आपसे बात करेंगे तो वे जाति के उच्चासन पर ही बैठकर. यहाँ हमारा फेसबुक भी उसका शिकार है .एक दिन मैंने पाया कि एक राजपूत मित्र के स्टेटस पर दुनिया भर के राजपूत पधार गए . हाँ इसके समानांतर वैसे लेखकों -पाठकों का भी एक वर्ग है जो आधुनिक मूल्यों के प्रति कटिबद्ध हैं . · 2 peopleLoading...

इतिहास लेखन की कई धाराएँ साथ -साथ चलती हैं . सब को सत्ता के खेल का हिस्सा नहीं बताया जा सकता . मजे की बात है 'दोबारा ' लिखे गये इतिहास का भी पुनर्लेखन होता है .प्रत्येक पीढ़ी अपने समय का इतिहास अपने तरीके और वक्त की मांग के हिसाब से लिखती है . इन्हीं अर्थों में 'इतिहास का अंत' नहीं होता या कहें कि 'अंतिम इतिहास' जैसी चीज नहीं होती .

Monday, November 15, 2010

Raju Ranjan Prasad माँ,बहन भाई या ब्राह्मण कोई भी आपके हाथ पर धागा बांधे वह केवल और केवल अंधविश्वास का धागा है . एक वैज्ञानिक ,तार्किक मन ऐसा किये जाने का विरोध करेगा .
42 minutes ago · · 4 peopleLoading...

Singh Umrao Jatav
‎@pratyush ji, बात इंसान के अपराधी होने की नहीं है। बात है अंधी धर्मभीरुता की। आपने शायद एक बात को नज़र अंदाज़ कर दिया की वे डाक्टर महोदय उस सिपाही पुजारी के पाँव छूते थे जो सेना में सबसे निचले दर्जे का कर्मचारी था। सेनाओं में अनुशासन बनाए र...खने के लिए ये सबसे बड़ा गुनाह है। यह कैसी धर्मभीरुता है की प्राणप्रिय पत्नी की हत्या को भूल कर व्यक्ति फिरसे उन्हीं चरणों में झुक जाए। क्या बिना चरणों में झुके भक्ति नहीं हो सकती। दिल्ली में जिस कालोनी में मैं रहता हूँ मेरे नीचेवाले ग्राउंड फ्लोर फ्लैट के सज्जन बहुत सज्जन हैं । दो बेटियाँ हैं, दोनों ही एमबीबीएस,एमडी हैं। डाक्टर एक वैज्ञानिक होता है जो शरीर और जीवन की सच्चाई को वैज्ञानिक दृष्टि से जानता है। हर शनिवार को एक गंदा सा आदमी -" शनि महाराज..." की टेर लगता कालोनी में घूमता है। लो, आवाज़ सुनते ही वैज्ञानिक डाक्टर बेटी दौड़ती हुई दरवाजे पर आती है उसके तेलवाले बर्तन में पैसे डालने। कई बार यदि या तो पुकार सुन न पाई हो अथवा बाथ रूम वगैरा: में हो तो उसे तलाश करती हुई कालोनी में भागी फिरती है। और कोई उस परिवार से उस शनि महाराज वाले आदमी को घास नहीं डालता है। इसे क्या कहेंगे आप?
Singh Umrao Jatav
दिलीप मण्डल जी, किन वाहियात लोगों के बारे में बात पूछी है। मैंने लंबे 36 वर्ष सशस्त्र सेना में अधिकारी के रूप में नौकरी की है। बहुत से लोगों को शायद न मालूम हो,लेकिन हमारे इस तथाकथित धर्मनिरपेक्ष देश में सशस्त्र सेनाओं में प्रति रविवार और स...ारे ही हिन्दू त्योहारों पर मंदिर में जाना अनिवार्य है। यदि यूनिट में मंदिर के अलावा मस्जिद,गुरद्वारा ,चर्च इत्यादि हैं तो वे वहाँ जाते है।जो नास्तिक हैं उन्हें कोई छूट नहीं है। सो कितनी ही बार तो मुसलमान अधिकारी को भी पुजारी से ये वाहियात लाल धागा बँधवाना पड़ जाता है। लेकिन में पूरे 36 वर्ष अड़ा रहा और न मंदिर गया, न धागा बँधवाया। नतीजा यह हुआ कि मुझ से जवाब तलब किया गया,धमकियाँ दी गईं। अंतत: मुझे भी अपने सीनियर को संविधान का हवाला देकर बताना पड़ा कि यदि मुझे मजबूर किया जाएगा तो मैं उनके खिलाफ कोर्ट में चला जाऊंगा। संदर्भवश इस लाल धागे को धर्मभीरु हिन्दू किस हद तक लेते हैं इससे संबंधित एक घटना। मेरी पोस्टिंग तब मिज़ोरम में थी। सहायक कमांडेंट के पद के एक उड़िया डाक्टर उस यूनिट में थे। वो और उनकी पत्नी हद दर्जे के धरभीरू थे। आर्मड फोरसेज में मंदिर का पुजारी उसी यूनिट का कोई सिपाही इत्यादि होता है ( आर्मी में वो सूबेदार होता है) सो ये डाक्टर और उनकी पत्नी अपने बच्चों समेत सबसे निचले रैंक के उस सिपाही पुजारी के सुबह उठते ही पैर छूते थे। किस्सा लंबा है लेकिन, खैर उस सिपाही पुजारी ने एक दिन जब ये डाक्टर एक दिन के लिए मुख्यालय से दौरे पर बाहर गए थे रात में उनकी पत्नी पर बलात्कार करके गला घोंट कर हत्या कर दी। पुजारी को अरेस्ट करके केस चला। यूनिट कि बदनामी हुई। मैंने तो सोचा यह था कि डाक्टर का अब पुजारी-पूजा पाठ से मोहभंग हो गया होगा। लेकिन उस पुजारी के अरेस्ट हो जाने पर दूसरा कोई सिपाही पुजारी नियुक्त होना ही था। तथाकथित भगवान को अकेला छोड़ा जाना संभव ही नहीं था!!! सो दूसरा सिपाही पुजारी नियुक्त हुआ और डाक्टर उस अगले पुजारी के पैर छूने लगे-गंडे बँधवाने लगे। लानत है,भईSee more
जाति व्यवस्था एक सामाजिक -सांस्कृतिक बुराई है . इसे निर्मूल करने की लड़ाई में मैं भी अपने को शरीक मानता -कहता हूँ . आपका सुझाव स्वागत योग्य है . लोग छोटे स्तर पर ही सही, इस दिशा में अग्रसर भी हैं,अलबत्ता सरकार इसे प्रोत्साहित नहीं कर रही . ल...ेकिन यह अंतर्जातीय विवाह(अनुलोम -प्रतिलोम दोनों ही ) काफी नहीं है .मेरा अनुभव कहता है कि लोग ऐसी शादियाँ करके भी जाति से ऊपर नहीं उठ पाते .हाँ कुछ अपवाद अवश्य हैं .जाति व्यवस्था को निर्मूल करने का एकमात्र तरीका वर्ग चेतना को समृद्ध करते हुए वर्ग संघर्ष को तेज करना होगा .बाकी ये सारे तरीके सहयोगी उपाय हैं , एकमात्र नहीं .

Sunday, November 14, 2010

  • Raju Ranjan Prasad कविता में जनतंत्र की मांग हैं धूमिल .
    09 November at 18:39 · · 3 peopleLoading...
  • Raju Ranjan Prasad और साहित्य (लेखन जगत ) में ऐसे लोगों की कितनी कमी है जो लोहे का स्वाद जानते हों !
    09 November at 18:43 · · 5 peopleLoading...

गाँधी का दर्शन जितना ही छोटा था आचरण उतना ही बड़ा . लोग उनके आचरण से झुकते थे , दर्शन से नहीं . गाँधी के इस रूप की दक्षिण -वाम सबको जरूरत है . मैं उस दिन की कल्पना करना चाहता हूँ जब हर आदमी गाँधी होगा या होने की कोशिश करेगा . मार्क्स का दर्शन और गाँधी का निजी आचरण -हमारा भविष्य इसी में बसता है .10 November at 09:16 · · 3 people

Saturday, November 13, 2010

सरकार ही क्यों वामपंथी पार्टियां तक सारा काम अंग्रेजी में करती हैं . यह सब सुविधा और सहूलियत के नाम पर चलाया जाता है .लेकिन सच्चाई यह है कि एक वर्ग -विभाजित समाज में भाषा भी अपनी सांस्कृतिक -सामाजिक हैसियत के आधार पर वर्गीकृत है .हिंदी के मुकाबले अंग्रेजी एलीट है तो भोजपुरी -मगही के मुकाबले हिंदी. किसी मगही -भाषी के समक्ष आप अगर खड़ी बोली हिंदी बोलते हैं तो झट कह देगा -'अंग्रेजी' मत बोलिए .


सच तो यह है कि भाषाओँ में आपस में विरोध नहीं होता । हमारा यह मानना कि हिंदी के विकास से बोलियां कमजोर अथवा नष्टप्राय हो रही हैं ,वैज्ञानिक या तर्कसम्मत नहीं है.किसी भी भाषा का 'स्वतंत्र विकास' किसी भी दूसरी भाषा के नैसर्गिक विकास में बाधक नहीं है .यहाँ तक कि अंग्रेजी तथा अन्य विदेशी भाषाओँ से हिंदी समृद्ध हुई है . मुझे लगता है , हम भाषा पर बात करते विचार को अलग छोड़ देते हैं . अंग्रेजी ने विचार के स्तर पर हिंदी एवं अन्य भाषाओँ को जो योगदान दिया है उसे भुलाया नहीं जा सकता . सारी गडबड़ी भाषा के 'प्रायोजित विकास ' की है .

Friday, November 5, 2010

Raju Ranjan Prasad एक मित्र ने फेसबुक पर अपने बारे में टिप्पणी की 'नया मौलवी हूँ , इसलिए ज्यादा प्याज खा रहा हूँ '. बार -बार सोंचता हूँ -प्याज खाने की बात मौलवियों के साथ ही क्यों जोड़ी गयी ?

25 October at 07:36 · ·

    • Shireen Haya Q ki moulvi sirf pyaz khate hain dusre mahanto ki tarha kisi ka khoon nai pite!
      25 October at 07:44 ·
    • Ashwet Singh Khoon peene walon ki kom hi alag hoti hai-na maulavi na mahant
      25 October at 08:09 · · 2 peopleLoading...
    • Shireen Haya N wat abt who eat onione?
      25 October at 08:13 ·
    • Dilip Sharma ‎@shireen ji - raju ji ne kisi "kahavat" ke bare main likha hain aur uska matlab janana chate hain. kisi ka majak nahi banaya hai.
      25 October at 09:23 · · 2 peopleLoading...
    • Shireen Haya Mr Dileep hw cn u say dis?
      25 October at 09:44 ·
    • Dilip Sharma Plz read his comments again, last line se pata chalta hai "बार -बार सोंचता हूँ -प्याज खाने की बात मौलवियों के साथ ही क्यों जोड़ी गयी ?"
      25 October at 10:21 · · 2 peopleLoading...
    • Anand Pandey Actually this legend was for new converts of Islam in India. In orthodox Hindus onion and garlic is considered "tamsiK"--the demonic food. so, any Hindu who converts is now free to eat all these.
      25 October at 12:40 · · 4 peopleLoading...
    • Ashok Kumar Pandey हां और कट्टरपंथ के लिये कठमुल्ला ही क्यूं…सुभाष गाताडे ने इधर कठपंडित का भी प्रयोग किया है…
      25 October at 14:32 · · 3 peopleLoading...
    • Shireen Haya Thanks Mr Pandey
      25 October at 14:48 ·
    • Ashok Kumar Pandey you need not thank me shireen...its not a minority problem...its the problem of mindset...specially the mindset of majority...this is what raju ji also want to indicate...
      25 October at 14:53 · · 3 peopleLoading...
    • Manoj Chhabra ‎@Ashok ji, Shireen ji... is bahas ko aur aage badhaaiye.. shayad kisi sarthak disha ki or badh sakien... kisi nishkarsh tak pahunch sakien...
      25 October at 15:44 ·
    • Jagdish Pathak अगर दिलों में पाकीजगी हो तो खाने पीने की बातों पर विवाद व्यथॆ है खायी गई शै हमें अशुद्ध नहीं कर सकती क्योंकि वो हमेशा शरीर के अन्दर नहीं रह सकती मनुष्य को दूषित करते हैं दूषित विचार जो हमेशा मन पर आघात कर उसे नापाक बना देते हैं सावधान रहना चाहिए उऩ लोगों जो शुद्ध भावनओं को संक्रमित करने का प्रयास करते हैं.
      25 October at 16:13 ·
    • Ashok Kumar Pandey अगर बहस पूरी पढ़ने का सब्र न हो तो टिप्पणी नहीं करनी चाहिये…वरना इश्वर का तो पता नहीं…दोस्त बनाने वाले ज़रूर शर्मिंदा होंगे…
      25 October at 18:15 · · 2 peopleLoading...
    • Parvez Akhtar
      कहावत कुछ यों है -- "नया मुल्ला, ज़्यादा प्याज खाता है" !
      मुस्लिम समुदाय के मांसाहार-भोजन में प्याज़-लहसुन-अदरक वगैरह का उपयोग अनिवार्यतः किया जाता है, जबकि मध्यकाल में हिन्दू , विशेषकर वैष्णवों, द्वारा प्याज़-लहसुन से परहेज़ | मुझे लगता... है; यह मुहावरा तब प्रचलित हुआ होगा, जब धर्मांतरण के बाद दीक्षित होकर कोई नया-मुसलमान जानबूझ कर ज़्यादा प्याज खाने का दिखावा करता होगा, ताकि यह साबित हो कि वह किसी पक्के मुसलमान से कमतर मुसलमान नहीं है; तो दूसरे कहते होंगे कि "नया मुल्ला है, ज़्यादा प्याज़ खारहा है" !See more
      25 October at 19:07 · · 2 peopleLoading...
    • Ashok Kumar Pandey प्रचलन के संबंध में आपसे असहमति का कोई कारण नहीं…आनन्द ने भी लगभग यही कहा है…मैं उसके रुढ़ होते जाने की बात कर रहा था…
      25 October at 19:13 · · 2 peopleLoading...
    • Rati Saxena par mene to yah suna he ki naya mulla jor se bang deta he, hinduo me bhi kuch vargo me pyaj prachlit tha, haan pyaj bhartiya kand nahi raha he, ye bahr se aaya he
      25 October at 20:41 ·
    • Rajeev Goswami कौन सी कहावत कहाँ से उपजी इसके लिए शोध हुए होंगे. प्याज मुल्ला खाए या काजी वोह तो प्याज ही रहेगा. ये तो अनाश्यक बहस लगती है भाई.
      25 October at 23:55 · · 1 personLoading...
    • Parvez Akhtar राजूजी; कृपया अब इस बहस को यहीं समाप्त कर दें, तो बेहतर होगा !
      26 October at 10:57 ·
    • Musafir Baitha बिलकुल इसी अर्थ को ध्वनित करती एक और लोकोक्ति है, बज्जिका भाषियों के बीच खासा प्रचलित- नया नया बाबाजी, पानी के कहे जल!
      26 October at 23:24 · · 1 personLoading...
  • Smileys
बचपन से सुनता आ रहा हूँ , 'मानो तो देव नहीं तो पत्थर'. असल में यह 'पत्थर' ही है , लेकिन हमारे मान लेने से देव हो जाता है .
23 October at 19:08 · ·

    • Shiksha Saxena mere gaon me ek dadi thi, bhuton chudailon ki kahania sunati rahti thi, maine kaha mujhe kyon nahi daraate bhut/chudailen, unhone kaha jo manegi hi nahi use kya darayega. maine kaha kitna asan hai, manana hi band kar do.
      23 October at 19:13 · · 3 peopleLoading...
    • Khalid A Khan
      woh ek sher hai na

      मेरे हाथो से तराशे हुवे
      पत्थर के सनम
      आज बुत खाने में बन कर खुदा बठे है
      ...पत्थरों आज मेरे सर पर बरसते क्यों हो
      मैं एक दिन तुम को आपना खुदा बना रख्खा है
      See more
      23 October at 19:13 · · 3 peopleLoading...
    • Aakash Kumar और उन देवोँ के बारे मेँ क्या ख़याल है राजूजी, जो इन पत्थरोँ मेँ नहीँ बसते।
      23 October at 19:41 · · 2 peopleLoading...
    • Praveen Tripathi wo to har jagah hain bus sachche dil se manana hi to hai..
      23 October at 20:01 ·
    • Dharmendra Negi Raju ji, aapne ye gana to suna hi hoga "Maano to main GANGA MAA hun, Na maano to behata paani....." or prahlad k pita ne use se pucha "tera vishnu kahan hai". To prahlad ne bhakti bhaw se kaha "sabhi jagah. Mere andar or kan-kan main vishnu basa hai". Pita Hiranyakasyap ne kaha "yadi tera bhagwan es khambhe me hai to kya wo tujhe bachane ayega?" or usne ye kahte huye kambha tod dala. To wahan se vishnu bhagwan Narshingh awatar main awatrit huye or uska wadh kar diya.
      23 October at 20:47 · · 1 personLoading...
    • Raju Ranjan Prasad और ऐसे नकली विष्णुओं से डरता ही कौन है धर्मेन्द्र नेगी जी ?
      23 October at 22:43 ·
    • Manjit Thakur आज का देवता आपका बॉस है जो होता तो पत्थर ही है, लेकिन आप उसे देव मानते हैं
      24 October at 00:59 · · 2 peopleLoading...
    • Ashok Kumar Pandey मानें काहें…हम नहीं मानते
      24 October at 01:08 · · 1 personLoading...
    • Jagdish Tiwari लेकिन जब तक देव नहीं चाहेगा हम पत्थर को देव मानेंगे ही नहीं, देव ही हमें पत्थर को देव मानने के लिए प्रेरित करता है
      24 October at 01:36 ·
    • Rajesh Raj hinduism manytao ki buniyad par khadi hai.agar ye manytaye tut jay to eska astitv hi samapt ho jayega...fir enki dukane kese chalege....
      24 October at 02:24 ·
    • Ish Mishra
      sabhi dharma manyataon ki buniyad par khde hote hain aur sabki buniyaden hil rahi hain. @ dharmendra. Vishnu ka bhi koi iman-dharm nahi hota aksar to raj gharanon me hi paida hote rahe, lekin avsarvadita ke tahat jab mauka laga to hathi ya ...sukar yoni me janm lene chale gaye inki bhagwani itni doyam darje ki hai ki dushmano ko (vaise bechare bali ne inka to koi nukshan nahi kiya tha), chhupne ki isi aadat ke chalte khambe me chhip gaye jisase dushman par dhokhe se var kar saken. aur-to-aur sabse jyada badshaluki to inhone Gautam Budha ke sath kiya. Jab Budh ko parast nahi kar paye jinhone inke brahmanvadi karmkandi 'super structure' kjo dhwast kar diya, to inke chamche inhe budha ke sharir me ghusane me tul gaye, aaj tak koshish kar rahe hain Budh ko manane ka ki vishnu ka avtar ban jao, budh inhe laga tar dutkar rahe hain ki mujhe itni gandi gali mat do.See more
      24 October at 06:09 · · 2 peopleLoading...
    • Shiksha Saxena charcha pathar ke devtaon se shuru hui thi manushya'janwar rupi devtaon par kendrit ho gai, itne devi/devta hain, unme bhe class/caste discrimination ka system hai kya?
      24 October at 06:49 · · 2 peopleLoading...
    • Uday Prakash एक ईसाई मान्यता यह भी है कि 'देवता' या 'पैगंबर' की पैदाइश यंत्रणा (sufferings) से होती है। मेरे एक भाई ने बचपन में एक कविता लिखी थी। बाद में वे कवि नहीं रहे, आचार्य हो गये, लेकिन उस कविता की एक पंक्ति अभी तक याद है: ''छेनी के सौ-सौ लात-घात छाती पर सह कर, पथ का इक मामूली पत्थर, भगवान बन गया !'
      24 October at 06:52 · · 5 peopleLoading...
    • Kailash Wankhede मान लेना ,,,,यह कुतर्क है ,,,
      24 October at 07:37 ·
    • Mrinal Pallavi manane ki swatantrta to hai na.......marzi apki hai.dharm ki sbse loktantrik sthiti yhi ho skti hai.baki bhagwan hai ya nhi....... ye to bhagwan hi jane
      24 October at 08:12 ·
    • Mrinal Pallavi ‎@kailash ji..ganit ya vigyan ke kai prashno ki shuruat hi MAN LIYA KI se hoti hai jis manne ko hm tarkikta se shi ya galat siddh krte hain....trial n error method.....man kr chup baith jana atarkikta hai.
      24 October at 08:24 · · 4 peopleLoading...
    • Uday Prakash
      कैलाश जी 'मान्यता' (faith, belief) ज़्यादातर 'तर्क' पर आधारित नहीं होती। इसमें सहमति है। लेकिन उसे 'अतार्किक' भी तो कहा जा सकता है ?
      दूसरा,लगभग सारे 'मिथक' आदमी के ही बनाये हुए हैं। 'देवता' और 'ईश्वर' भी ऐसे ही 'कांस्ट्रक्ट्स' हो सकते हैं। जि...स कविता और जिस ईसाई मान्यता का मैंने हवाला दिया था, उससे यह संकेत भी तो मिलता है कि अक्सर आदमी उसी को 'पूज्य' बनाता है, जिसे वह सबसे अधिक 'यंत्रणा' देता है। जीसस, मोहम्मद, राम, बुद्ध जैसे 'देवत्व' के प्रतीक और अंबेडकर, कबीर, भगत सिंह, नेल्सन मंडेला, गांधी, मार्टिन लूथर, चे जैसे सामाजिक परिवर्तन के 'नायकत्व' के प्रतीकों का अपना-अपना जीवन क्या एक हद तक यह साबित नहीं करता? स्त्रियों को 'लक्ष्मी' और 'दुर्गा' या 'सीता' बनाने के बारे में भी ऐसा ही कुछ है।
      वैसे ऐसे समय में जब 'माइक्रोसाफ़्ट' का मालिक बिल गेट और उसके जैसे फ़ोर्बीस की सूची वाले लोग दनादन 'देवत्व' और 'नायकत्व' हासिल कर रहे हों, तो किसी पत्थर के टुकड़े को ऐसा दर्जा देना क्या बुरा है? बशर्ते ऐसे पत्थर के पीछे कोई 'शैतानी साजिश' ना हो...! (संकेत समझ रहे होंगे।)
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      24 October at 08:45 · · 3 peopleLoading...
    • Kailash Wankhede उदय जी आपसे असहमति नहीं है .,,,,,,'' ऐसे पत्थर के पीछे कोई 'शैतानी साजिश' ना हो...!'' कौन सा पत्थर बच सका है ऐसी साजिशों से ? ,,,,,,,,,,, 'अतार्किक' भी तो कहा जा सकता है ?'' सहमति के बावजूद नहीं कह पा रहा हू .
      24 October at 08:53 ·
    • Kailash Wankhede मृणाल जी आप सही है .वह मान लेने के बाद दिमाग से दिल पर अपना डेरा नहीं जमाता है ..
      24 October at 08:56 ·
    • Mrinal Pallavi kailashji vicharo ka sambandh to dimag se hi hai.....dil ka isme koi yogdan hai ye bhi to hm mante hi hain na.
      24 October at 09:04 · · 1 personLoading...
    • Aparna Manoj
      सर , गृहस्थी में चिह्ने तो घर है ... पूजा में जुड़े तो मंदिर -मस्जिद , अगियार , काबा , गिरिजाघर ... राजनीति में जुड़े तो आग है ... आतंक में हथियार है ... दीवाने को कटाक्ष है ...नदी में कटाव है ...
      मिट्टी में रुकाव है ... तलहटी में भराव है ...... कवि के लिए बहुत कुछ ..... इसके सपाटपन में चाहे तो आसमान तलाश ले या चोंच में दबा कर अग-जग घूम आये ...See more
      24 October at 09:52 · · 5 peopleLoading...
    • Pawel Parwez ऐसा है कि क्भी क्भी लोग बाग इन्सान को भी देवता मान लेते है।
      24 October at 11:24 · · 3 peopleLoading...
    • Ish Mishra aur uska styanash kar dete hain.
      24 October at 12:39 · · 1 personLoading...
    • Neha Sharad ‎" MEin janata tha ek din yeh gul khilaya jayegaa,pattar kahkar mujhe devta banaya jayegaa'{ Ganesh bihari tarz lakhnavi ]
      24 October at 13:34 · · 2 peopleLoading...
    • Raj Kumar Ranjan MANUSHYA KA VISHWASH JISME HO WAHI BHAGWAN HAI, CHAE WAH PATHAR HI KYO NA HO.
      24 October at 21:45 ·
    • Ish Mishra Bhagwan ke bina nahi jee sakte kya? isko bhagwan man lo usko bhagwan man lo. chalo agar aisa hi hai to inshamiyat aur insaf ko hi kyon nahi bhagwan man lete???aise bhagwano ka kya jo zulm aur haivaniyat ki duniya rache aur ATO (American Terror Operation)-NATO ka kohram machaye??? lanat hai aise allmighty ki might par jo apne bandon se aise tuchche kam karaye. bhagwan hi bhala kare bhagwano ka.
      24 October at 22:22 ·
    • Khurshid Anwar Ish hamara Bhagwan hai. Warna naam badlo
      25 October at 10:50 ·
    • Ish Mishra aise dharmshankat me fansa diya tumne, sochna padega. Chalo logon ko confusion me rahne do ki khud Ish bhi nastik ho sakta hai, tab tak vaikalpik namo ke bare me sochte hain.
      25 October at 10:55 ·
    • Khurshid Anwar are nahi naam wahi rahe to theek rahega. Jab bhi bhagwan ko haivan kahna hoga..................................
      25 October at 11:04 · · 1 personLoading...
    • Ish Mishra Chalo nam na badlne ka ek "ploitical" justification mil gaya, thanx, khur!
      26 October at 05:56 ·
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