Sunday, January 9, 2011

गाली का समाजशास्त्र

गालियों की बात को तो दूर छोड़ें, मेरे कुछ परिचित हैं जो जोर से बोलने तक को अशिष्टता/अश्लीलता घोषित करते हैं. सम्भ्रांत घरों में जोर से बोलना अपराध की तरह है. मेरे शहर में एक पुराने प्रोफ़ेसर थे जो जोर से बोलते सुने नहीं कि पूछ बैठते थे -'आप ब...चपन में कहीं पशु वगैरह तो नहीं चराया करते थे?' उनका मानना था कि चरवाहे को जोर से बोलने की आदत पड़ जाती है,क्योंकि उन्हें दूर गये जानवरों से अपना आदेश मनवाना होता है.


मुझे लगता है, जोर से बोलने में 'प्रभुता' भी शामिल है. मैंने अपने गोव में देखा है कि मालिक लोग अपने दरवाजे से ही अपने कारिंदे/कमिया को हांक लगाते थे. मजदूरों की बस्ती में जाना वे अपनी हेठी समझते होंगे. इसके साथ ही मैंने यह भी पाया कि औरतें अपने घरों में भी जोर से नहीं बोला करती थीं. औरतों का जोर से बोलना अभद्र /अशुभ /पुरुषोचित माना जाता था.


सात-आठ साल पहले दिल्ली से कोई महिला इतिहासकार (फ़िलहाल नाम भूल रहा हूँ) पटना म्युजियम में अपना परचा पढ़ने आई थीं . वह इतना धीमे स्वर में बोल रही थीं कि उनकी बातों को सुनना तो दूर मुझे चिंता सताने लगी. मुझे डर है कि अपने को शिष्ट /आधुनिक बनाने के चक्कर में औरतें कहीं अपनी आवाज ही न खो दे. महानगरों में यह संस्कृति रोग की तरह फ़ैल रही है.


मैंने यह सब इसलिए नहीं लिखा कि गाली का महिमामंडन हो. गाली मनुष्य की स्वभावगत कमजोरी है-ठीक जैसे क्रोध,घृणा,ईर्ष्या आदि. ये सब अगर न हों तो हम मनुष्य नहीं. हाँ , यह ठीक है कि अबतक जो गालियाँ दी जाती रही हैं , वे शिष्ट नहीं हैं . कुछ शिष्ट कहे जा सक्नेवालों ने शिष्ट कही जा सकनेवाली गालियाँ भी इजाद कर रखीं हैं . मुझे अपने बचपन की एक घटना की याद आती है जब मुझे एक शिष्ट गाली दी गई थी. एक आदमी ने कहा था 'बनोगे हिंदू ?" हिंदू परिवारों में 'बनोगे मौलवी?' कहकर गाली दी जाती रही है. उन दिनों मैं इस गाली को समझ नहीं पाया था -अब जाकर अर्थ-भेद खुला है-आधुनिक/सेकुलर/शिष्ट गाली का.

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