काँमणि काली नागणीं तीन्यूँ लोक मझारि।
राम सनेही ऊबरे, विषई खाये झाबरि।।
कामणि मीनीं षाँणि की, जे छेड़ौं तौ खाइ।
जे हरि चरणाँ राचियाँ, तिनके निकट न जाइ।।
नारी सेती नेह, बुधि विवके सबही हरै।
काँइ गमावै देह, कारिज कोइ, नाँ सरै।।
नारी नसावैं तीनि सुख, जा नर पासैं होई।
भगति मुकति निज ग्यान मैं, पैसि न सकई कोइ।।
एक कनक अरु काँमनी, विष फल कीएउ पाइ।
देखै ही थै विष चढ़ै, खाँयै सूँ मरि जाइ।।
एक कनक अरु काँमनी, दोऊ अगनि की झाल।
देखें ही तन प्रजलै, परस्याँ ह्वै पैमाल।।
जोरू जूठणि जगत की, भले बुरे का बीच।
उत्तम ते अलगे रहैं, निकटि रहै तें नीच।।
नारी कुंड नरक का, बिरला थंभै बाग।
कोई साधू जन ऊबरै, सब जन मूँवा लाग।।
सुंदरि थै सूली भली, बिरला बंचै कोय।
लोह निकाला अगनि मैं, जलि बलि कोइला होय।।
भगति बिगाड़ी काँमियाँ, इंद्री केरै स्वादि।
हीरा खोया हाथ थैं, जनम गँवाया बादि।।See more
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