Friday, November 19, 2010

साहित्य में इस तरह के विभाजन से एकदम इंकार नहीं किया जा सकता . दलित साहित्य का तो आधार वाक्य है कि अबतक का साहित्य सवर्ण साहित्य है .भारतीय समाज में जाति एक प्रभावी पहचान है .कुछ स्तर पर प्रगतिशील लेखक भी इस आधार पर अघोषित रूप में संगठित है....मेरे शहर पटना में कुछ प्रगतिशील साहित्यकार अपने कमरे के एकांत में जब आपसे बात करेंगे तो वे जाति के उच्चासन पर ही बैठकर. यहाँ हमारा फेसबुक भी उसका शिकार है .एक दिन मैंने पाया कि एक राजपूत मित्र के स्टेटस पर दुनिया भर के राजपूत पधार गए . हाँ इसके समानांतर वैसे लेखकों -पाठकों का भी एक वर्ग है जो आधुनिक मूल्यों के प्रति कटिबद्ध हैं . · 2 peopleLoading...

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